सत्ताधारी प्रेम में लिप्त मीडिया!

जिस तरह चूहे और बिल्ली में दोस्ती नहीं हो सकती उसी प्रकार सत्ता और मीडिया का रिश्ता है।
एक स्वस्थ स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए मीडिया को सरकार के विपरीत होना आवश्यक है ताकि सरकार घमंडी और नशीली न हो जाए

जनता और सरकार के बीच मीडिया एक ऐसा माध्यम है जो जनता की मूलभूत समस्याओं से सरकार को अवगत कराती है और सरकार द्वारा उनकी समस्याओं का निवारण कराती है।
सरकार द्वारा उठाए गए गलत कदमों पर विपक्ष के साथ-साथ मीडिया का भी दायित्व बनता है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करके सवाल करें।


जिससे सरकार अपने गलत कदमों को पीछे करके सही रास्ते का चुनाव कर सके।
पिछले कुछ वर्षों में मीडिया के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है। मुझे नहीं लगता कि मीडिया और सरकार की घनिष्ठता से कोई अनजान होगा।


जो मीडिया पहले सत्ताधारी पार्टियों से आंख में आंख मिलाकर सवाल करता था उनके नाकामियों पर उन्हें बेनकाब करता था जनता के सामने उनके असली चेहरे को प्रदर्शित करता था। साथ ही जनता की समस्याओं को अपनी स्क्रीन ऊपर जगह देता था वही जनता की दुख अखबारों में छपते थे मीडिया को जनता सम्मान की नज़रों से देखती थी। प्रिंटेड अखबारों में विपक्ष को भी सम्मानित जगह प्राप्त थी।

सत्ताधारी पार्टी के साथ साथ विपक्षियों के बयान भी छपते थे। सराहनाओं का दौर कम था आलोचनाएं ज्यादा होती थी

एक स्वस्थ स्वतंत्र लोकतंत्र का बगीचा फल फूल रहा था। हम उस दौड़ की बात कर रहे हैं जब आज का विपक्ष सत्ता में हुआ करता था। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उस सरकार की नाकामियों का पर्दाफाश कर विपक्ष में लाने पर मीडिया की अहम भूमिका रही है।

आज भी वही मीडिया है, वही स्टूडियो हैं, वही जनता है, वही देश है, सवाल भी वही है और उन्हीं से पूछा जा रहा है जो कभी सत्ता में हुआ करते थे।


मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं। आज के सरकार द्वारा किया गया हर गलत कार्य पर विपक्ष से सवाल किया जाता है। उन्हें टेलीविजन चैनलों पर ज्यादा समय बोलने नहीं दिया जाता है और ना हीं अखबारों में निष्पक्षता से उनकी कोई बयान प्रकाशित होते हैं।

टेलीविजन ग्राफिक का इस्तेमाल जनता की मूलभूत समस्याओं पर कम और विपक्ष को बदनाम करने के लिए ज्यादा किया जाने लगा है अर्थात हम कह सकते हैं कि विपक्षी नेताओं को टेलीविजन पर उन्हें जलील करने के लिए ही बुलाया जाता है।

आधुनिक मीडिया और प्रिंटेड अखबारों को लगता है कि सवाल के लिए एक खास पार्टी है जो लंबे अरसे तक देश पर हुकूमत की है। सवाल उसी से पूछा जाना चाहिए। बेचारी मौजूदा सरकार तो मासूम है इससे सवाल क्या करना?


मीडिया और सत्ता के बीच घनिष्ठता और प्रेमवाद कितना खतरनाक हो सकता है यह बात मुझे बताने की जरूरत नहीं है। आज भारत की जनता इस बात को स्वयं महसूस कर रही है।


नोटबंदी जीएसटी जैसे तानाशाही कदम पर देश की मीडिया ने उन्हें आईना नहीं दिखाया बल्कि उस वक्त यह उनका प्रचार कर रहे थे जिसका परिणाम हम आज आर्थिक मंदी के रूप में झेल रहे हैं।

देश में पढ़े लिखे युवाओं की बेरोजगारी दर साल दर साल बढ़ रही है। नौकरियों की आमद का कोई दूर दूर तक पता नहीं है। नोटबंदी के परिणाम इतने घातक हुए कि आज कल-कारखानों में तालाबंदी की शुरुआत हो चुकी है।

सरकारी पटरियों पर प्राइवेट ट्रेनें चलाई जा रही हैं देश के मूल संपत्ति का निजीकरण किया जा रहा है।

सरकार की गलत नीतियों का विरोध जब देश के शिक्षण संस्थान और विपक्ष करता है तो उसे सत्ताधारी नेता टुकड़े टुकड़े गैंग बताते हैं। पाकिस्तानी और राजद्रोही जैसे शब्दों से उन्हें संबोधित किया जाता है। उनकी गिरफ्तारियां होती हैं और वह जेल में डाले दिए जाते है।

मीडिया की खामोशी ने पत्रकारिता जगत की परिभाषा बदल कर रख दी है। वाकई देश बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है। सरकार के वफादार टेलीविजन जगत के एंकरों को यह बात समझनी चाहिए कि उनकी यह प्रेम देश को ले डूबेगी।


जनता ने मीडिया के इस चरित्र को गोदी मीडिया का नाम दिया है। 2012 के दौड़ में हुए 2 बड़े आंदोलनों में जनता को मीडिया का भरपूर साथ मिला था। वही जनता जब नागरिकता संशोधन कानून पर विरोध कर रही है तो मीडिया इनका साथ देने से पीछे क्यों हट रहे हैं।

मीडिया को अपना कार्य सही ढंग से करना चाहिए। उन्हें सरकार की नाकामियों को जनता के सामने उजागर करना चाहिए जो इससे पहले वह करता आया है।

किसी के प्रति घनघोर प्रेम उसे पागल बना देता है उसकी हर गलती को वो सही मानता है। देश की मीडिया को जरूरत है कि सत्ताधारी प्रेम से बाहर निकले। और अपना कार्य निष्पक्षता से करें।
जनता में मीडिया का जिस तरह का इमेज बना है उसे इतनी आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता।

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