पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव से खतरे में भारतीय संस्कृति।

आज के अत्याधुनिक युग में युवा पीढ़ी इज्जत दौलत व शोहरत की तलाश में भटक रही है।

इस कंप्यूटर और कंपटीशन के युग में कैरियर के लिए कड़ा संघर्ष है। जिसका कोई बाईपास नहीं है।

पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव ने आधुनिकता को वह गति प्रदान किया है जो भारतीय संस्कृति को हासिए पर ला दिया है।

युवा पीढ़ी Mordnity को अख्तियार करना चाहती हैं। जिसमें वह नयापन वह दिखावा है जो शिष्टता शालीनता व सभ्यता से दूर बेहयाई के करीब है।

जिसके समक्ष हमारी भारतीय संस्कृति शर्मिंदा है। शिक्षा का स्तर ऊंचा उठा है। लेकिन नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है।

कहां गया वह अदब व लेहाज़ जब हम अपने बड़ों को सलाम पेश करते थे। और अदब से खड़े हो जाते थे।

वह हमें ढेर सारी दुआएं दे कर हमारी खैरियत जानना चाहते थे। हम अपने बड़ों का पैर छूकर प्रणाम करते थे

और वह हमें आयुष्मान भव: कहकर लंबी उम्र के लिए आशीर्वाद देते थे।

आधुनिक बनने के रेस में हम इतना आगे निकल गए हैं कि शिष्टाचार संस्कार अदब व लेहाज कितना पीछे छूटा नजर नहीं आता।

हम अगर आसमान की बुलंदियों को भी छू ले, चुनाव व चयन की कड़ी प्रतिस्पर्धा को पार कर शासन व प्रशासन में भागीदारी सुनिश्चित कर लें फिर भी अगर शिष्ट शालीन व सभ्य नहीं हैं। तो हम कामयाब नहीं हैं।

हमारे व्यक्तित्व का विकास तभी संभव है जब हमारा नैतिक स्तर ऊंचा होगा। हमारे अंदर मानवीय गुणों का विकास होगा।

आज जरूरत इस बात की है कि हम शिक्षित होने के साथ-साथ संस्कारिक बने। सदियों से आ रही वसुधैव कुटुंबकम को अंगकृत व आत्मसमर्पित करें।

एक ऐसी सोच विकसित करें जो जाति धर्म वर्ग संप्रदाय से ऊपर हो। ऐसे समाज का निर्माण करें जिसकी बुनियाद मानवता पर खड़ी हो।

एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करें जिसमें राष्ट्रीयता का स्थान सबसे ऊपर हो। ताकि भारत माता जो ऋषि महर्षि पीरों फकीरों की धरती है संसार में सर बुलंद हो

और भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक मंच पर नायक बन सके। और हम भारतीय उस पर गर्व कर सकें।

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